Wednesday, 27 February 2019

कुछ वक़्त के लिए अचेत होना चाहती हूं।

अजान ही
आशंकित हूं
भयभीत हूं
कुछ वक़्त के लिए
अचेत होना चाहती हूं।

मैं यहां बैठ सुन सकती हूं..
मेरे कान फट रहे हैं
बम की आवाज़ से
आवेश से भरी नारेबाजी से
सच, मैं अचेत होना चाहती हूं
उस चीख-चीत्कार से पहले।

मैं यहां बैठ देख पा रही हूं..
अपना मकान छोड़ भागते
वितृष्णा से भरे चेहरे,
सुन्न सा भाव लिए
वो बूढ़े काका,
न जाने क्या कौंधा
उनके भीतर
घर की चौखट को चूम
टेक आएं हैं माथा।

मेरे भीतर धुकधुकी हो उठी है
नहीं, मैं किसी की पक्षधर नहीं
न ही कोई पंथी हूं
अजान, अबूझ सी
आशंकित हूं
भयभीत हूं।

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