Wednesday, 27 February 2019

कुछ वक़्त के लिए अचेत होना चाहती हूं।

अजान ही
आशंकित हूं
भयभीत हूं
कुछ वक़्त के लिए
अचेत होना चाहती हूं।

मैं यहां बैठ सुन सकती हूं..
मेरे कान फट रहे हैं
बम की आवाज़ से
आवेश से भरी नारेबाजी से
सच, मैं अचेत होना चाहती हूं
उस चीख-चीत्कार से पहले।

मैं यहां बैठ देख पा रही हूं..
अपना मकान छोड़ भागते
वितृष्णा से भरे चेहरे,
सुन्न सा भाव लिए
वो बूढ़े काका,
न जाने क्या कौंधा
उनके भीतर
घर की चौखट को चूम
टेक आएं हैं माथा।

मेरे भीतर धुकधुकी हो उठी है
नहीं, मैं किसी की पक्षधर नहीं
न ही कोई पंथी हूं
अजान, अबूझ सी
आशंकित हूं
भयभीत हूं।

Thursday, 14 February 2019

प्रेम

प्रेम।
मैं अक्सर एक असफल कोशिश
करती हूं
प्रेम को शब्दों में बांधने की।

कितनी बुद्धू हूं न..
समझ ही नहीं पाती
कि भला हवा को कैसे
बांधा जा सकता है।

पर...
प्रेम कभी सफल
यां असफल नहीं हो सकता,
यह हवा सा हमारे
इर्द गिर्द मौजूद ही रहता है।

उसका नाम कानों तक पहुंचते ही
धड़कनों का लजाना,
किवाड़ों की आड़ ले उसे निहारना,
उसके कदमों की आहट सुनते ही
जुल्फों को बिखराना,
और उसके सामने आते ही
अल्फाजों का गुम जाना,
प्रेम ही है।

प्रेम की नामौजूदगी में....
उसकी आवाज को सुन पाना
हर पल में उसका ख्याल होना
बीते वक्त की याद से
आंसुओं का ढुलक आना
और फिर मुस्कुरा कर
आंसुओं को अपनाना,
प्यार ही तो है।

बदला है तुम्हारा मन क्या?

तारीख बदली है साल बदला है पर बदला है तुम्हारा मन क्या? है जश्न चारों ओर उमंग का न बूझे छोर पर क्या खोज पाए हो अपने मन की डोर? फैला है चहुँओर...