Thursday, 30 August 2018

ऐसी एक यात्रा पर मुझे जाना है...

जज़्ब किया है जो सदियों से भीतर 
उसे किसी नदी में उछालना है 
ऐसी एक यात्रा पर मुझे जाना है। 

देखना है मुझे...
पहाड़...पहाड़ से ऊंचा पर्वत 
नदी...नदी की तेज़ धाराओं की करवट।
चट्टानें...चट्टानों में उभरी आकृतियां 
रेत के टीले...टीलों में छुपी सीपियाँ। 

जंगल...जंगलों का शाश्वत डर 
पंछी...पंछियों के पल दो पल के घर। 
झरने...झरनों का प्यारा शोर 
ऊंची ट्रॉली...ट्रॉलियों की मजबूत डोर। 

अनजाने लोग...लोगों की पोशाक, उनकी भाषा 
मंदिर मस्जिद...जहाँ खोज पाऊं ईश्वर की नई परिभाषा। 
खाली मैदान...उन मैदानों में मुझे एक पुकार लगाना है 
ऐसी एक यात्रा पर मुझे जाना है।         

Thursday, 23 August 2018

मैं वो कहानी बनना चाहती हूं।

नहीं लिखनी मुझे कोई कविता
न ग़ज़ल लिखना चाहती हूं,
जिसे सुन तू सुकूं से सो सके
मैं वो कहानी बनना चाहती हूं।

बनना चाहती हूं रेशमी धागा
जो तेरे टूटे ख्वाबों, उधड़े जज्बातों
को सिल सके,
यां बन जाऊं वो तकिया
जिसे कसकर पकड़
तू बेझिझक रो सके।

बनना चाहती हूं वो एकांत
जहां बैठ तू खुद से गुफ्तगू कर सके,
यां बन जाऊं वो महफ़िल
जहां तेरा हर दर्द शून्य हो सके।

नहीं बनना चंदन,
न रोली बनना चाहती हूं,
जहां बांधे तू मन्नती धागे
मैं मंदिर-मस्जिद की वो मीनार बनना चाहती हूं।।

Sunday, 19 August 2018

जाग जाओ...अब तो खुदा भी रूठ रहा है।।

उत्तराखंड में अाई थी बाढ़
अब केरल डूब रहा है
समझे थे कि यहां खुदा बसते हैं
फिर भला ये क्यों हो रहा है!!

नहीं... नहीं..
जवाब की कोई चेष्टा नहीं
देनी तुम्हें कोई कुंठा नहीं
फिर क्यों हो परेशां कि
ये क्या हो रहा है,
ये तो वही है जो
हरवक्त नजरअंदाज हो रहा है।

जानती हूं...जानती हूं
वहां की जमीन में अाई दरारें
तुम्हारे मन के दरीचों को भी सालती हैं,
फिर क्यों करते हम वो गलती
जो भगवान को दोषी ठहराती है।

चलो..
चलो..
उठते हैं अब मैं और तुम
करते हैं वो ठीक
जो हमारे हिस्से से गलत हो रहा है
देखो ना...
अब तो खुद खुदा भी रूठ रहा है।

बदला है तुम्हारा मन क्या?

तारीख बदली है साल बदला है पर बदला है तुम्हारा मन क्या? है जश्न चारों ओर उमंग का न बूझे छोर पर क्या खोज पाए हो अपने मन की डोर? फैला है चहुँओर...