Sunday, 29 October 2017

कुछ गुजरा अभी..... जाना पहचाना सा लगा...






कुछ गुजरा अभी..... 
जाना पहचाना सा लगा... 
महक भी वही थी.. 
खनक भी वही थी..
जाने के बाद की
मायूसी भी वही थी...
शायद कोई पुराना किस्सा था,
यां मेरा ही कोई हिस्सा था..... 

सोचा रोक लूँ उसे... 
जो सवाल उस वक़्त 
नहीं पूछ सकी,
आज मांग लूँ
वो जवाब सारे...
पर चले जाने दिया उसे...
रोक लिया मैंने 
वही दर्द , वही मायूसी।  

Monday, 2 October 2017

मेरा फ़ोन मुझसे बहुत स्नेह करता है




हाथों से चिपका,
उँगलियों से लिपटा
रहता है,
मेरा फ़ोन मुझसे बहुत स्नेह करता है।

मेरा चेतन मन,
मेरा अचेतन मष्तिष्क,
पल-पल उसमें लीन,
रहता है,
मेरा फ़ोन मुझसे बहुत स्नेह करता है।

कभी वाचाल,
कभी मूक,
तो कभी भंगिमाओं से,
वार्तालाप करता है,
मेरा फ़ोन मुझसे बहुत स्नेह करता है।

जब-जब ये,
दो पल की बाकी सांसें लेता है,
मेरा दिल बेचैन हो उठता है,
मोहब्बत है आखिर,
उसमें तो ऐसा ही होता है,
मेरा फ़ोन मुझसे बहुत स्नेह करता है।

बदला है तुम्हारा मन क्या?

तारीख बदली है साल बदला है पर बदला है तुम्हारा मन क्या? है जश्न चारों ओर उमंग का न बूझे छोर पर क्या खोज पाए हो अपने मन की डोर? फैला है चहुँओर...