क्या लिखूँ
क्या रहने दूँ
इज़हार करूँ
यां भावों का अपहरण कर लूँ
तमाम विचार। तमाम सरकार
लुका-छुपी खेल रहा सरोकार।
ख्वाहिशें कम थीं
बरकतें ज्यादा
आसपास माहौल था संगीन
पर मैं रही रंगीन ज्यादा।
मुट्ठियों को था कस लिया
पर जिसे नहीं ठहरना था
वो फिसल ही गया...
कभी सुकून बरसा
तो कभी मन सुकून के खातिर तरसा
खूब मुस्काए लब। आँखें बरसी मंद
हसीन वक़्त के पल होते हैं चंद....
एक और साल का अंत
मन में उठ रहे भाव अनंत।