Monday, 23 November 2015

ना जाने क्या लिखना है, शायद अल्फ़ाज़ों को कागज़ से मिलना है.....

ना जाने क्या लिखना है,
शायद अल्फ़ाज़ों को कागज़ से मिलना है.....

कलम खफा-सी है,
मन में एक उदासी है,
बड़े दिनों से इनसे मिले नहीं,
शायद तभी दिल में ख़ामोशी है।

चाहत बेहद रही कि,
इन कश्तियों को एक ठहराव दूँ,
ज़िन्दगी की इन छोटी-मोटी चोटों को,
अल्फ़ाज़ों की दवा-दुआ दूँ।
पर वक़्त कुछ अस्त-व्यस्त रहा,
अल्फ़ाज़ों का उमड़ाव भी ज़बरदस्त रहा,
न जाने कैसे तारीखें बदलती गईं,
दिन का वादा किया,
तो शाम ढल गई,
और जब रात का वादा किया,
तो थकी अँखियों में नींद भर गई।

आज इनसे माफ़ी मांगते हैं,
दिल-ए-समंदर में एक गोता लगाते हैं,
उम्मीद है, माफ़ किया जाएगा,
और गर ऐसा ही हुआ,
तो दिल-ए-शहर इक दफा फिर मुस्कुराएगा,
फिर मुस्कुराएगा।।

बदला है तुम्हारा मन क्या?

तारीख बदली है साल बदला है पर बदला है तुम्हारा मन क्या? है जश्न चारों ओर उमंग का न बूझे छोर पर क्या खोज पाए हो अपने मन की डोर? फैला है चहुँओर...