दशक बदले, माहौल बदला,
चादर रूपी समाज का धागा उधड़ा
पर पिता...
पिता का खौफ ना जाने क्यों नहीं बदला!
आज भी औलाद की फरमाइशें
उसके मसले
पिता तक मां ही पहुंचाती है,
'सिसकती औलाद' पिता के आगे
आने से कतराती है।
आखिर क्यों गब्बर जैसा डर
पिता के व्यक्तित्व में शामिल हुआ,
'सो जा, वरना गब्बर आ जाएगा'
का नया वर्जन
'आने दे पापा को..सब बताऊंगी' हुआ।
शायद इसलिए,
क्यूंकि गर पिता का खौफ न होता,
वो सख्त न होते
तो हम बच्चे इस दुनिया-ए-बाज़ार में
बेहद सस्ते दामों में बिक गए होते।
ज़िन्दगी से हासिल जख्मों का मूल्य
हम नहीं आँक पाते
गर पिता हर मुश्किल-ए-हालात में
आसानी से टूट जाते।
और गर तुम्हें लगता है कि
पिता को इतना खुरदुरा नहीं होना चाहिए,
तो कभी उनकी जिम्मेदारियों का झोला
अपने कंधे पर देख उठाइए।
आसान नहीं होता पिता-सा बनना
बहुत कुछ खर्च हो जाता है
नहीं मिलता मेहनताना।
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