कितना अच्छा लगता है न
खुद से बतियाना
उंगलियों के पोरों पर चाय के प्याले की पकड़
अँखियों का शून्य में निहारना।
दिल की तमाम बेचैनियों को
दिल ही का समझाना,
काफी कुछ उधड़ा सा सिल जाता है
मुश्किल सही, नामुमकिन नहीं
दिल को बातों से बहलाना।
कितना अच्छा लगता है न
खुद के आगे रोना
न कोई झिझक, न कोई अटक
दिन.हफ्तों.महीनों से कैद आंसुओं का रिहा होना।
जज्ब किया जो भीतर आहिस्ता-आहिस्ता
तेजी से उसका बहना,
मुसलसल गिरते मोतियों का
सुकून के धागे में पिरोना।