Sunday, 24 June 2018

कितना अच्छा लगता है न ...

कितना अच्छा लगता है न 

खुद से बतियाना

उंगलियों के पोरों पर चाय के प्याले की पकड़

अँखियों का शून्य में निहारना।

दिल की तमाम बेचैनियों को

दिल ही का समझाना,

काफी कुछ उधड़ा सा सिल जाता है

मुश्किल सही, नामुमकिन नहीं

दिल को बातों से बहलाना।


कितना अच्छा लगता है न

खुद के आगे रोना

न कोई झिझक, न कोई अटक

दिन.हफ्तों.महीनों से कैद आंसुओं का रिहा होना।

जज्ब किया जो भीतर आहिस्ता-आहिस्ता

तेजी से उसका बहना,

मुसलसल गिरते मोतियों का

सुकून के धागे में पिरोना।

Sunday, 17 June 2018

पिता का खौफ ना जाने क्यों नहीं बदला!

दशक बदले, माहौल बदला,
चादर रूपी समाज का धागा उधड़ा
पर पिता...
पिता का खौफ ना जाने क्यों नहीं बदला!

आज भी औलाद की फरमाइशें
उसके मसले
पिता तक मां ही पहुंचाती है,
'सिसकती औलाद' पिता के आगे
आने से कतराती है।

आखिर क्यों गब्बर जैसा डर
पिता के व्यक्तित्व में शामिल हुआ,
'सो जा, वरना गब्बर आ जाएगा'
का नया वर्जन
'आने दे पापा को..सब बताऊंगी' हुआ।

शायद इसलिए,
क्यूंकि गर पिता का खौफ न होता,
वो सख्त न होते
तो हम बच्चे इस दुनिया-ए-बाज़ार में
बेहद सस्ते दामों में बिक गए होते।

ज़िन्दगी से हासिल जख्मों का मूल्य
हम नहीं आँक पाते
गर पिता हर मुश्किल-ए-हालात में
आसानी से टूट जाते।

और गर तुम्हें लगता है कि
पिता को इतना खुरदुरा नहीं होना चाहिए,
तो कभी उनकी जिम्मेदारियों का झोला
अपने कंधे पर देख उठाइए।

आसान नहीं होता पिता-सा बनना
बहुत कुछ खर्च हो जाता है
नहीं मिलता मेहनताना।

बदला है तुम्हारा मन क्या?

तारीख बदली है साल बदला है पर बदला है तुम्हारा मन क्या? है जश्न चारों ओर उमंग का न बूझे छोर पर क्या खोज पाए हो अपने मन की डोर? फैला है चहुँओर...