Monday, 14 January 2019

भीतर ही भीतर।

कुछ है.....
जो मुझे बेचैन कर रहा है
भीतर ही भीतर।

कुछ है.....
जो चाहता है पुकार लगाना
करना चाहता है ध्वनित हरेक अक्षर
विशाल समुद्र सा रहता है
वो मेरे ही भीतर।

इसका मौन रहना
मुझे पसंद नहीं,
न ही पसंद
इसका उफान,
कौन है ये
कैसी असल प्रकृति इसकी
हूं अब तलक अनजान।

पर यकीनन कुछ है.....
जो मुझे बेचैन कर रहा है
भीतर ही भीतर।

बदला है तुम्हारा मन क्या?

तारीख बदली है साल बदला है पर बदला है तुम्हारा मन क्या? है जश्न चारों ओर उमंग का न बूझे छोर पर क्या खोज पाए हो अपने मन की डोर? फैला है चहुँओर...