Sunday, 18 June 2017

आवाज़ तो नहीं हुई, पर हाँ कुछ तो टूटा है

आवाज़ तो नहीं हुई,
पर हाँ कुछ तो टूटा है,
हाथ की लकीरें तो नहीं मिटीं,
पर जरूर कुछ छूटा है। 

हर चीज़ अपनी जगह पर है,
पर लगता है किसी ने कुछ लूटा है,
पानी का सैलाब-सा आया है,
शायद कोई पुराना घड़ा आज फूटा है। 

आँखें नम पर लबों पर हंसी है,
बेशक कोई रिश्ता रूठा है,
सबकुछ समेटने की चाह थी,
कमबख्त ये वक़्त बहुत झूठा है।

रास्तें वही, मंजिल भी पुरानी है,
पर हमकदम आज भटका है,

चोट लगे तब मलहम नहीं है,
जब मलहम पास तब चोट नहीं है,
ये सिलसिला भी बड़ा ही अनूठा है। 

बदला है तुम्हारा मन क्या?

तारीख बदली है साल बदला है पर बदला है तुम्हारा मन क्या? है जश्न चारों ओर उमंग का न बूझे छोर पर क्या खोज पाए हो अपने मन की डोर? फैला है चहुँओर...