बेलगाम-सी इस दुनिया पर,
सरसरी नज़र दौड़ाती हूँ,
कहीं क्षण-भर न रुकूँ,
कहीं ठहर-सी जाती हूँ।
कभी सुकून-सा भाव जागता है,
कभी मन कचोट-सा जाता है,
कभी अजूबा-सा दिखाई देता है,
तो कभी हैवानियत का सिला नंगा हो झांकता है।
कभी 'मन-ए-अपंग' का एहसास हो आता है,
कभी इस भीड़ में 'पाकीजा' होना
जन्नत-सा महसूस कराता है,
कभी हाथों की उँगलियाँ दयावश चेहरे तक
आ पहुँचती हैं,
तो कभी वही उंगलियां मेज को दे ठोकती हैं।
बेलगाम-सी इस दुनिया में,
हर किस्सा खबर होता है,
गर दस-रूपए का कागज़ी नोट बाजार से खफा हो जाए,
तो कल वही मशहूर होता है,
अजी, जो आपके साथ होता है, वही मेरे साथ होता है,
आखिर मेरा दिन भी एक 'दैनिक अखबार' से शुरू होता है।।